অধ্যায়-2- শির্মাদ ভাগ্বাদ গীতা

The Gita Bengali – অধ্যায় – 2 (Complete)

অধ্যায় – 2 – শ্লোক -1

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Sanjay recounted:

MADHUSUDANA (Lord Krishna) then spoke in his divine voice unto ARJUNA, who was terribly upset and overcome with grief and guilt at the thought of war he was about to enter into.

संजय बोले —- उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रोंवाले शोकयुक्त्त उस अर्जुन के प्रति भगवान् मधुसूधन ने यह वचन कहा ।। १ ।।
অধ্যায় – 2 – শ্লোক -2

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(The Divine Lord Krishna commences to speak.  Therefore the actual Gita starts at this point).

The Blessed Lord asked of Arjuna:

Dear Arjuna, why have you been struck with fear, guilt and sorrow at this moment ?

श्रीभगवान् बोले —- हे अर्जुन ! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ ! क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है ।। २ ।।
অধ্যায় – 2 – শ্লোক -3

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The great Lord Krishna continued:

O Arjuna, be brave, be a bold, courageous man.  Do not be a coward and a feeble person, it does not suit such a great warrior and killer of enemies as you !

इसलिये हे अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती । हे परंतप ! ह्रदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिये खड़ा हो जा ।।३ ।।
অধ্যায় – 2 – শ্লোক -4

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Arjuna asked the Lord:

O Madhusudana (Lord Krishna), the killer of foes, tell me how I am to kill BHISMA and DRONA when they are both worthy of my worship ?

अर्जुन बोले — हे मधुसूदन ! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्मपितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्भ लडूंगा ! क्योंकि हे अरिसूदन ! वे दोनों ही पूजनीय हैं ।। ४ ।।
অধ্যায় – 2 – শ্লোক -5

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Arjuna continued:

It is much better to live on a beggar’s earnings than to kill the great saints or Gurus.  After killing them I will only enjoy material wealth and pleasure stained with their blood.

इसलिये इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ ; क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूंगा ।। ५ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক -6

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Arjuna continued:

The sons of DHRTARASHTA stand here before us as our opponents and enemies.  It is difficult to say which is better: whether they should destroy us or whether we should conquer the.  If we choose to slay them, how can we possibly care to live on ?

हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिये युद्ध करना और न करना इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है अथवा यह भी नहीं जानते की उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे । और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं ।। ६ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক -7

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Arjuna spoke unto the Lord:

Please, Dear Lord, I am your disciple, kindly guide and instruct me, for I have taken refuge and shelter in you.

I am confused as to my duties and what is good for me.

I beg you to give me knowledge, wisdom and a clear, logical mind.

इसलिये कायरतारूप दोष से उपहत हुए स्वभाववाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिये कहिये ; क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिये आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिये ।। ७ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক -8

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I cannot find any cure for the great great grief I suffer, O KRISHNA, even though by winning this war, I would achieve great power and rule over the earth and the heavens.

क्योंकि भूमि में निष्कण्टक, धन-धान्य सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके ।। ८ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক -9

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Sanjaya said:

Dear Dhrtarashtra, my great king, after addressing HRISHIKESHA (Lord of the senses).  GUDUKESHA (conqueror of sleep), and PARAMTAPAH (destroyer of all enemies), ARJUN spoke clearly to the great Lord KRISHNA in a determined and assured voice that he would not fight, and then became silent.

संजय बोले —– हे राजन् ! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्री गोविन्द भगवान् से ‘युद्ध नहीं करूँगा’ यह स्पष्ट कहकर चुप हो गये ।। ९ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 10

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“O ARJUNA,” HRISHIKESA spoke smilingly, as ARJUNA stood between the two armies:

हे भरतवंशी धृतराष्ट्र ! अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए से यह वचन बोले ।। १० ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 11

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“ARJUNA, you show your grief and compassion for those who do not deserve your grief, compassion or sympathy. Although your words are filled with wisdom, you must remember, the wise men never grieve for the living or the dead.”

श्रीभगवान् बोले — हे अर्जुन ! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिये शोक करता है और पण्डितो के से वचनों को कहता है ; परंतु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं चले गये हैं, उनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते ।। ११ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 12

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“ARJUNA”, always remember, there has never been a time when you or any of the great warriors present here, were not alive or non-existent, nor will we all, at any time, cease to exist and live on in the future.

न तो ऐसा ही है की मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजालोग नहीं थे और न ऐसा ही है की इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे ।। १२ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 13

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Lord Krishna continued:

Dear ARJUNA, the wise never get confused by the fact that the ATMA or Soul goes through the stages of childhood, youth and old age along with the body. When one body ceases to function, the soul passes on to another body. The cycle is then repeated once more.

जैसे जीवात्मा इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्बावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है ; उस विषय में धीर पुरुष मोहित नही होता ।। १३ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 14

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The Blessed Lord continued:

O son of KUNTI (Arjuna), when the senses come in contact with their sensual objects, feelings of heat, cold, pain and pleasure. These feelings last only for a short time; they will come and go. Bear them patiently dear ARJUNA.

हे कुन्तीपुत्र ! सर्दी, गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिये हे भारत तू उनको सहन कर ।। १४ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 15

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Only he who is not affected by these senses and sensual objects becomes immortal, for he is considered the best of men because he is well balanced in pain and pleasure.

क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है ।। १५ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 16

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The Blessed Lord stated:

The unreal does not exist and the real always exists. Those with peaceful, pure and wise minds, know the truth about both the real and unreal.

असत् वस्तु की सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है । इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व तत्त्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है ।। १६ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 17

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He who is completely indestructible, present everywhere in the universe, and is imperishable, regard Him as God O ARJUNA.

नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् दृश्यवर्ग व्याप्त है । इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है ।। १७ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 18

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The Blessed Lord explained:

O ARJUNA, only the body can be destroyed; but the soul is indestructible, permanent and immortal. Therefore ARJUNA, pick up your weapons and fight!

उस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं । इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन ! तू युद्ध कर ।। १८ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 19

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O ARJUNA, he who thinks of the Soul as a killer and he who thinks that Soul can be killed, is ignorant, because the Soul can never be killed nor can it kill anyone or anything.

जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते ; क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी के द्वारा मारा जाता है ।। १९ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 20

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The Blessed Lord said:

Dear ARJUNA, the ATMAN or Soul can neither be born nor can it die. It is forever immortal, eternal and ancient. The Soul in a body does not die when the body itself perishes and ceases to exist. The Soul always lives on.

यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है । क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है ; शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता ।। २० ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 21

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ARJUNA, he who knows the Soul to be eternal, indestructible, permanent unborn, and endless, that person can neither kill nor be killed.

हे पृथापुत्र अर्जुन ! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है ।। २१ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 22

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The Blessed Lord said:

Just as a person gets rid of old clothing and replaces the old clothing with new ones, similarly, the soul changes from one body to a new body when its body has become old worn out and has stopped functioning.

जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है ।। २२ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 23

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The Soul cannot be cut by weapons, burnt by fire, absorbed by air, nor can water wet the Soul.

इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता ।। २३ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 24

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The Soul is eternal, everlasting. It cannot be destroyed, broken or burnt; it cannot become wet nor become dried. The Soul is the most stable thing in the universe, it is immovable and present throughout the universe.

क्योंकि यह आत्मा अच्छेध है, यह आत्मा अदाह्रा अक्लेध और नि:संदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है ।। २४ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 25

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The Blessed Lord stated:

The Soul cannot be seen, With this mind, dear changed by any means. With this mind, dear ARJUNA, one should never grieve.

यह आत्मा अव्यक्त्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है । इससे हे अर्जुन ! इस आत्मा को उपर्युक्त्त प्रकार से जानकर तू शोक करने योग्य नहीं है अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है ।। २५ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 26

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Even if you incorrectly believe. O ARJUNA, that the Soul is constantly taking birth and dying, you should still not become upset and filled with grief and sadness.

किंतु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मनेवाला तथा सदा मारनेवाला मानता है, तो भी हे महाबाहो ! तू इस प्रकार शोक करने के योग्य नहीं है ।। २६ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 27

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The Lord continued:

Dear ARJUNA, knowing the fact that anything that takes birth will eventually die, it seems pointless to grieve over someone’s death, especially if you knew that the death had to take place anyway.

क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे का जन्म निश्चित है । इससे भी इस बिना उपायवाले विषय में तू शोक करने के योग्य नहीं है ।। २७ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 28

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ARJUNA, all beings are unseen before birth, are seen after birth and during their lives; again, however, all beings are unseen after death. So what cause is there to worry?

हे अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट है ; फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है ।। २८ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 29

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Few look upon “the Soul” with curiosity. Some talk and hear of “the Soul” with curiosity and enchantment, but in the end, there is nobody who can really understand and comprehend “the Soul.”

कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है वैसा ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भांति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भांति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता ।। २९ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 30

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ARJUNA, although the body can be slain, the Soul cannot. The Soul of a being lives on forever, therefor it is not necessary to grieve over anybody’s death because the most important part of them never dies at all, and that is, their Souls.

हे अर्जुन ! यह आत्मा सबके शरीरों में सदा ही अवध्य है । इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने के योग्य नहीं है ।। ३० ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 31

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Looking upon your duty, ARJUNA, as a Kshatriya (warrior), you should never be afraid, but be courageous, because there is nothing better for a Kshatriya than to fight in a righteous war.

तथा अपने धर्म को देखकर भी तू शोक करने के योग्य नहीं है अर्थात् तुझे भय नहीं करना चाहिये ; क्योंकि क्षत्रिय के लिये धर्मयुक्त्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है ।। ३१ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 32

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Dear ARJUNA, you should consider yourself a very lucky warrior to fight in a war where for the victor, the prize is entrance to the gates of heaven.

हे पार्थ ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान् क्षत्रिय लोग ही पाते है ।। ३२ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 33

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By not fighting this war, O ARJUNA, you are committing a sin because you fail to perform your duty as a warrior and you also will lose your honour.

किंतु यदि तू इस धर्मयुक्त्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा ।। ३३ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 34

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People will talk and look upon you, O ARJUNA, with disrespect. There is only one thing worse than death itself, and that is, disrespect for a respectable man.

तथा सब लोग तेरी बहुत कालतक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और मानवीय पुरुष के लिये अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है ।। ३४ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 35

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O ARJUNA, your high esteem and reputation will become ruined if you do not fight this battle. The mighty warriors will consider you lower than them and will believe that you did not fight the battle because you feared the opponent.

और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे ।। ३५ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 36

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You will experience tremendous pain when your enemies laugh at your lack of strength and courage and say many shameful and humiliating things about you, O ARJUNA.

तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निन्दा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे ; उससे अधिक दुःख और क्या होगा ।। ३६ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 37

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O ARJUNA, if you fight this battle, think of how it shall benefit you. If you die during battle, you will go to heaven and be in eternal peace. If you shall be victorious O ARJUNA, you will be the ruler of this Kingdom. O ARJUNA, stand up, take courage, and fight!

या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा । इस कारण हे अर्जुन ! तू युद्ध के लिए निश्चित करके खड़ा हो जा ।। ३७ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 38

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The Blessed Lord spoke unto Arjuna:

O ARJUNA, by considering victory and defeat, pleasure and pain, gain and loss with indifference, you will not commit any sin.

जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखों को समान समझकर उसके वाद युद्ध के लिये तैयार हो जा : इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा ।। ३८ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 39

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O ARJUNA, you already have been presented knowledge. Now you must put this knowledge to practical use O ARJUNA, with selfless

KARMYOGA, O ARJUNA, by doing your duty and leaving the results of your actions to the Lord, you will break the bonds of KARMA.

हे पार्थ ! यह बुद्भि तेरे लिये ज्ञानयोग के विषय में कही गयी और अब तू इसको कर्मयोग के विषय में सुन —– जिस बुद्बि से युक्त्त हुआ तू कर्मों के बन्धन को भलीभाँति त्याग देगा अर्थात् सर्वथा नष्ट कर डालेगा ।। ३९ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 40

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When one practises Yoga, there is no fear of destruction; the person does not suffer a loss of honest effort in whatever he or she attempts. Even by practising a little bit of Yoga, one is protected from great fear ( of death or danger). Peace of mind is slowly obtained.

इस कर्मयोग में आरम्भ का अर्थात् बीज का नाश नहीं है और उल्टा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा-सा भी साधन जन्म मृत्युरूप, महान् भय से रक्षा कर लेता है ।। ४० ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 41

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Those with a firm mind, O ARJUNA, are decisive about everything. Those whose minds are infirm are not decisive in their actions and their intellect wanders in many directions.

हे अर्जुन ! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्भि एक ही होती है ; किंतु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्बियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं ।। ४१ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 42, 43

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O ARJUNA, unwise people who think of nothing but material desires and pleasures, and who believe in the Vedas as well, think that heaven means the absolute end of oneself.

हे अर्जुन ! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्भि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है —– ऐसा कहने वाले हैं, वे अविवेकजन इस प्रकार की ।। ४२ ।।

These same people, O ARJUNA, speak beautiful words describing heaven in all its glory and beauty. They speak of heaven as the ultimate goal for one to achieve in life. They speak of all the good actions they have performed in life and that the result of their good deeds will be the gaining of worldly pleasures, and everlasting wealth in their present life as well as ensure favourable and pleasant birth in their next life.

जिस पुष्पित अर्थात् दिखाऊ शोभायुक्त्त वाणी को कहा करते हैं, जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन ।। ४३ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 44

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O ARJUNA, these ignorant people who seek pleasure through material possessions and prosperity, are brainwashed and obsessed with the desire for more and mire material pleasure. Because of this brainwashed state of mind and this obsession, they are unable to think logically, and lack the wisdom to make wise decisions for themselves in life.

करने वाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त्त हैं, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चयात्मिका बुद्भि नहीं होती ।। ४४ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 45

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The Blessed Lord spoke:

The Vedas deal mainly with the three Gunas (qualities and nature). One of these is known as the material portion of life in the world. You must overcome all of these Gunas, O ARJUNA. Get rid of all you doubts. Free yourself of all frustrations and grief and devote mind and soul to God. This is true peace and happiness.

हे अर्जुन ! वेद उपर्युक्त्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्य रूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रति पादन करने वाले हैं ; इसलिये तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्त्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्बन्द्बों से रहित, नित्य वस्तु परमात्मा में स्थित, योगक्षेम को न चाहने वाला और स्वाधीन अन्त:करण वाला हो ।। ४५ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 46

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O ARJUNA, to an enlightened soul, the Vedas are only as useful as a tank of water during a flood.

सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है ।। ४६ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 47

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O ARJUNA, always remember what I am about to say to you for it is the law of KARMA, a law that one should always obey in life should he/she ever feel resentment, frustration, anxiety, or grief:

You have the right only to perform your actions, duties and responsibilities in life; however, the results of these actions should not concern you at all. You should not even desire results for your actions because the results are simply not in your hands, but in the hands of the Lord. Neither should you lean towards inaction. (This is the most important shloka describing Karmyoga.)

तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं । इसलिये तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्त्ति न हो ।। ४७ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 48

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The Divine Lord said:

O ARJUNA, perform all your actions with an even mind. In other words, do not feel overjoyed at the successes in your life and do not allow yourself to feel overcome with grief because of any failures you may encounter on life. Rid yourself of any attachments to material things and always remember that the results of your actions is in the Lord’s hands. If you react the same way, regardless of the result of your actions, you are performing what is known as KARMYOGA.

हे धनञ्जय ! तू आसक्त्ति को त्याग कर तथा सिद्भि और असिद्भि में समान बुद्भि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व ही योग कहलाता है ।। ४८ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 49

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The Blessed Lord said unto ARJUNA:

When actions are performed by a person for any selfish motive or gain, that person shall always suffer and remain disappointed in life. Those, however, who practice KARMYOGA  or the Yoga of even-mindedness, are free from any worries or disappointments for they do not care for the results of their actions and duties.

इस समत्वरूप बुद्भि योग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है । इसलिये हे धनञ्जय ! तू समबुद्भि में ही रक्षा का उपाय ढूंढ़ अर्थात् बुद्भियोग का ही आश्रय ग्रहण कर ; क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं ।। ४९ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 50

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That person who devotes himself to a life of KARMYOGA with no selfish motives in mind does not become hungry for power, nor does he become attached to any of the bad and disgusting things in life. Therefore, O ARJUNA, always strive to achieve selfless KARMYOGA, for this is the path of perfection in life.

समबुद्भि युक्त्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात् उनसे मुक्त्त हो जाता है । इससे तू समत्व-रूप योग में लग जा, यह समत्वरूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात् कर्म बन्धन से छूटने का उपाय है ।। ५० ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 51

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Those individuals who have devoted their lives to the practice of KARMYOGA, they not only free themselves of the worries that accompany anticipation of results after performing certain actions, but also free themselves of all sins and achieve the supreme state of everlasting peace and happiness.

क्योंकि समबुद्भि से युक्त्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर जन्मरूप बन्धन से मुक्त्त हो निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं ।। ५१ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 52

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When you finally reach the state where your mind is free from all attachments and pleasures in life, your intellect will clear and will give you the ability to think logically, and wisely, whenever you need to.

जिस काल में तेरी बुद्भि मोह रूप दलदल को भली भांति पार कर जायगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक समबन्धी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जायेगा ।। ५२ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 53

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Your intellect, O ARJUNA, will then allow you to distinguish between the real and the unreal in life. You will no longer have conflicts about opinions of life’s many aspects and characteristics. You will know what is of importance and of no importance. Finally, you will reach the state where you will have achieved KARMYOGA, a state of long-lasting peace and happiness.

भांति-भांति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्भि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जायगी, तब तू योग को प्राप्त हो जायगा अर्थात् तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जायेगा ।। ५३ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 54

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Arjuna asked the Lord:

Dear KESHAVA (Krishna), what are the characteristics of a man who is very wise, has a firm intellect and is placed or engrossed in a superconscious state? How does this type of person speak, sit and walk?

अर्जुन बोले — हे केशव ! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिर बुद्भि पुरुष का क्या लक्षण है ? वह स्थिर बुद्भि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है ।। ५४ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 55

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The Divine Lord Krishna replied:

O ARJUNA, one is said to have steady wisdom if he completely frees himself from desires of the mind and heart and is realistically satisfied within himself, no more having the longing for material pleasures.

श्री भगवान् बोले — हे अर्जुन ! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भली भांति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थित प्रज्ञ कहा जाता है ।। ५५ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 56

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He whose mind is unaffected by misery or pleasure and is free from all bonds and attachments, fear and anger, is man, of steady wisdom and decisive intellect.

दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्बेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा नि:स्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, ऐसा मुनि स्थिर बुद्भि कहा जाता है ।। ५६ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 57

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A man has a decisive intellect, who is no longer attached to anything, shoeing pleasure if something pleasan happens and displeasure if something unpleasant occurs.

जो पुरुष सर्वत्र स्नेह रहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्बेष करता है, उसकी बुद्भि स्थिर है ।। ५७ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 58

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Just as a tortoise withdraws or retreats its limbs into its shell, a person with a firm mind and decisive intellect can withdraw his senses from sensual objects.

और कछुआ सब ओर से अपने अंगो को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्भि स्थिर है ( ऐसा समझना चाहिये ) ।। ५८ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 59

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One who does not use his senses for the enjoyment of sensual objects can overcome and rise above sensual objects. However, he is not able to leave off the attachment to his senses. One who realizes God or the Supreme, gers rid of attachments to the senses as well.

इन्द्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्त्ति निवृत नहीं होती । इस स्थिर प्रज्ञ पुरुष की तो आसक्त्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत हो जाती है ।। ५९ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 60

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The Blessed Lord said:

Even those who are wise and are striving to achieve spiritual happiness and freedom are carried away violently or with great force by their excited senses.

हे अर्जुन ! आसक्त्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत्त्न करते हुए बुद्भिमान् पुरुष के मन को भी बलात्कार से हर लेती हैं ।। ६० ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 61

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The yogis or My divine devotees have gained or achieved self control; they have complete control of their senses and therefore they have also earned the power of constant wisdom. Their minds are constantly focussed and concentrated on ME, the Supreme Goal.

इसलिये साधक को चाहिये कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहितचित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे ; क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्भि स्थिर हो जाती है ।। ६१ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 62

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Those who always think about sensual objects get attached to those objects. Attachment arouses desires and when one does not get what one desires, irritation is aroused, and from irritation stems anger and frustration.

विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्त्ति हो जाती है, आसक्त्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है ।। ६२ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 63

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The Blessed Lord spoke:

From anger, stems delusion (false beliefs or assumptions); delusion causes loss of one’s confused mind; the confused mind makes a person lose his/her ability to reason and lose their power to solve his/her problems. When one loses his/her power to reason, the person will suffer ultimate death and destruction.

क्रोध से अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्भि अर्थात् ज्ञान शक्त्ति का नाश हो जाता है और बुद्भि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिर से गिर जाता है ।। ६३ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 64

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But the disciplined wise man who has control over his senses and is free from attraction and emotional distractions, gains peace and purity of the self.

परन्तु अपने अधीन किये हुए अन्त:करण वाला साधक अपने वश में की हुई राग-द्बेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्त:करण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है ।। ६४ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 65

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Purity of self gets rid of all miseries and grief. A person with internal purity soon develops steady wisdom and a clear, unclouded intelligence.

अन्त:करण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्त वाले कर्मयोगी की बुद्भि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भली भाँति स्थिर हो जाती है ।। ६५ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 66

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One who cannot control his senses is one who is lacking in steady wisdom and intelligence, and also lacks proper feelings or sentiments (thoughts). A person who cannot think properly and make decisions with a clear mind, cannot have peace of mind, and without peace of mind there can be no happiness.

न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्भि नहीं होती और उस अयुक्त्त मनुष्य के अन्त:करण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्यों को शान्ति नहीं मिलती और शान्ति रहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है ।। ६६ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 67

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The mind of those who run after or pursue material pleasures and sensual objects, is often clouded and let on the wrong path, just as the wind blows away the ship on the waters.

क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त्त पुरुष की बुद्बि को हर लेती है ।। ६७ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 68

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O ARJUNA, therefore with senses under control, protected from sensual objects, not only does one have the ability to reason things out properly, but also gains peace of mind leading to eternal bliss and happiness.

इसलिये हे महाबाहो ! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ, इन्द्रियों के विषयों से सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्भि स्थिर है ।। ६८ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 69

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When it is night for all others, the wise man is always awake. When others are aware and deceived (deluded) by sensual objects, the wise man who knows the truth and has realized God, shuts his eyes to daylight and the misleading material objects that attract people, and considers it night. He is not easily deceived.

सम्पूर्ण प्राणियों के लिये जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञान स्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थित प्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान् सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्त्व को जानने वाले मुनि के लिये वह रात्रि के समान है ।। ६९ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 70

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As the river enters the ocean without affecting the ocean or disturbing it, so the desires enter the person who has obtained Supreme peace, but not the person who is already filled with desires and wants more and more.

जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थित प्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं ।। ७० ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 71

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The Blessed Lord said:

By giving up all desires, freeing oneself of all attachments and without constantly thinking of oneself or of one’s possessions, only then, one may live in realistic peace.

जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममता रहित, अहंकार रहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शान्ति को प्राप्त होता है अर्थात् वह शान्ति को प्राप्त है ।। ७१ ।।

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অধ্যায় – 2 – শ্লোক – 72

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The Blessed Lord spoke:

O ARJUNA, this is the state of a person who has truly realized God. After obtaining Supreme Bliss by realizing God, this person cannot be deceived by any of life’s evils. Until the time of death one remains firm in this state and ultimately achieves Supremr Peace and tranquility.

हे अर्जुन ! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अन्तकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है ।। ७२ ।।

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