Key Shlokas – গীতা চালীসা
Dhrtarashtra asked of Sanjaya:
O SANJAYA, what did my warrior sons and those of Pandu do when they were gathered at KURUKSHETRA, the field of religious activities?Tell me of those happenings.
धृतराष्ट्र बोले —– हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छा वाले मेरे पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ? ।। १ ।।
Sanjaya said:
Having said this, ARJUNA, still extremely sad and confused sat on the seat of this chariot throwing away his bow and arrows.
संजय बोले —- रणभूमि में शोकसे उद्भिग्नमन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाण सहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ गये ।। ४७ ।।
Sanjay recounted:
MADHUSUDANA (Lord Krishna) then spoke in his divine voice unto ARJUNA, who was terribly upset and overcome with grief and guilt at the thought of war he was about to enter into.
संजय बोले —- उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रोंवाले शोकयुक्त्त उस अर्जुन के प्रति भगवान् मधुसूधन ने यह वचन कहा ।। १ ।।
“ARJUNA, you show your grief and compassion for those who do not deserve your grief, compassion or sympathy. Although your words are filled with wisdom, you must remember, the wise men never grieve for the living or the dead.”
श्रीभगवान् बोले — हे अर्जुन ! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिये शोक करता है और पण्डितो के से वचनों को कहता है ; परंतु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं चले गये हैं, उनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते ।। ११ ।।
Lord Krishna continued:
Dear ARJUNA, the wise never get confused by the fact that the ATMA or Soul goes through the stages of childhood, youth and old age along with the body. When one body ceases to function, the soul passes on to another body. The cycle is then repeated once more.
जैसे जीवात्मा इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्बावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है ; उस विषय में धीर पुरुष मोहित नही होता ।। १३ ।।
The Blessed Lord said:
Just as a person gets rid of old clothing and replaces the old clothing with new ones, similarly, the soul changes from one body to a new body when its body has become old worn out and has stopped functioning.
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है ।। २२ ।।
The Soul cannot be cut by weapons, burnt by fire, absorbed by air, nor can water wet the Soul.
इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता ।। २३ ।।
The Soul is eternal, everlasting. It cannot be destroyed, broken or burnt; it cannot become wet nor become dried. The Soul is the most stable thing in the universe, it is immovable and present throughout the universe.
क्योंकि यह आत्मा अच्छेध है, यह आत्मा अदाह्रा अक्लेध और नि:संदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है ।। २४ ।।
The Blessed Lord stated:
The Soul cannot be seen, With this mind, dear changed by any means. With this mind, dear ARJUNA, one should never grieve.
यह आत्मा अव्यक्त्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है । इससे हे अर्जुन ! इस आत्मा को उपर्युक्त्त प्रकार से जानकर तू शोक करने योग्य नहीं है अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है ।। २५ ।।
The Lord continued:
Dear ARJUNA, knowing the fact that anything that takes birth will eventually die, it seems pointless to grieve over someone’s death, especially if you knew that the death had to take place anyway.
क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे का जन्म निश्चित है । इससे भी इस बिना उपायवाले विषय में तू शोक करने के योग्य नहीं है ।। २७ ।।
ARJUNA, all beings are unseen before birth, are seen after birth and during their lives; again, however, all beings are unseen after death. So what cause is there to worry?
हे अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट है ; फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है ।। २८ ।।
O ARJUNA, always remember what I am about to say to you for it is the law of KARMA, a law that one should always obey in life should he/she ever feel resentment, frustration, anxiety, or grief:
You have the right only to perform your actions, duties and responsibilities in life; however, the results of these actions should not concern you at all. You should not even desire results for your actions because the results are simply not in your hands, but in the hands of the Lord. Neither should you lean towards inaction. (This is the most important shloka describing Karmyoga.)
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं । इसलिये तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्त्ति न हो ।। ४७ ।।
That person who devotes himself to a life of KARMYOGA with no selfish motives in mind does not become hungry for power, nor does he become attached to any of the bad and disgusting things in life. Therefore, O ARJUNA, always strive to achieve selfless KARMYOGA, for this is the path of perfection in life.
समबुद्भि युक्त्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात् उनसे मुक्त्त हो जाता है । इससे तू समत्व-रूप योग में लग जा, यह समत्वरूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात् कर्म बन्धन से छूटने का उपाय है ।। ५० ।।
He whose mind is unaffected by misery or pleasure and is free from all bonds and attachments, fear and anger, is man, of steady wisdom and decisive intellect.
दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्बेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा नि:स्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, ऐसा मुनि स्थिर बुद्भि कहा जाता है ।। ५६ ।।
The yogis or My divine devotees have gained or achieved self control; they have complete control of their senses and therefore they have also earned the power of constant wisdom. Their minds are constantly focussed and concentrated on ME, the Supreme Goal.
इसलिये साधक को चाहिये कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहितचित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे ; क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्भि स्थिर हो जाती है ।। ६१ ।।
The mind of those who run after or pursue material pleasures and sensual objects, is often clouded and let on the wrong path, just as the wind blows away the ship on the waters.
क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त्त पुरुष की बुद्बि को हर लेती है ।। ६७ ।।
Therefore, Arjuna always perform your given duties without feelings of attachment towards any being or anything. A person doing unattached actions, or in other words, “inction” attains the Lord, the key to perfection.
इसलिये तू निरन्तर आसक्त्ति से रहित होकर सदा कर्तव्य कर्म को भली भांति करता रह । क्योंकि आसक्त्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है ।। १९ ।।
The Blessed Lord Krishna spoke:
O Arjuna, all actions that are performed by beings, are done so by three modes of Prakrithi or three aspects of nature. However, ignorant people claim themselves as the performer of their actions.
वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं तो भी जिसका अन्त:करण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा मानता है ।। २७ ।।
One who sees action (Karma) in inaction (Akarma), and inaction in action, is a wise man and a great sage. That man who has accomplished all actions is a Yogi.
जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्भिमान है और वह योगी समस्त कर्मों को करने वाला है ।। १८ ।।
The Blessed Lord spoke in His Divine voice:
O my dear Arjuna, in order for one to achieve Sannyaas, he must practise Karmyoga (doing Karma or actions without attachment or desire to see the results of those actions). If one is successful in performing Karmyoga (that is Karma without attachment to results), he shall realize God very quickly.
परन्तु हे अर्जुन ! कर्मयोग के बिना संन्यास अर्थात् मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग प्राप्त होना कठिन है और भगवत्स्वरूप को मनन करने वाला कर्म योगी पर ब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है ।। ६ ।।
The Lord declared:
One who leaves all the results of his actions to God and performs Karma without attachment, is immune to all sins of the world in the same way as a lotus leaf remains unmoistened when placed in water.
जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्त्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता ।। १० ।।
The Lord explained:
O Arjuna, he who truly sees Me everywhere he looks, sees me in everything. I am always there within his sight and he is also always within my sight.
जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत* देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता ।। ३०
The Lord proclaimed:
O Arjuna, I am present in all beings. He who worships me with a steady, peaceful and undistracted mind, is a true Yogi and he dwells within Me in My heart always.
जो पुरुष एकीभाव में स्थित होकर सम्पूर्ण भूतों में आत्म रूप से स्थित मुझ सच्चिदानन्दधन वासुदेव को भजता है, वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझमें बरतता है ।। ३१ ।।
O Arjuna, whatever entity (being or object) one thinks about during the time of his death while leaving his body, that is what he shall become in his next life.
हे कुन्ती पुत्र अर्जुन ! यह मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, उस-उस को ही प्राप्त होता है, क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है ।। ६ ।।
Therefore,O Arjuna, think of Me at all times, even while you fight this battle. If you surrender your mind and intellect to Me, dear friend, you will undoubtedly come to Me and unite with Me in heaven.
इसलिये हे अर्जुन ! तू सब समय में निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर । इस प्रकार मुझ में अर्पण किये हुए मन बुद्भि से युक्त्त होकर तू नि:संदेह मुझको ही प्राप्त होगा ।। ७ ।।
Arjuna, one who is constantly performing meditation upon God without letting his mind wander in any other direction, achieves supreme salvation (union with God)
हे पार्थ ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यास रूप योग से युक्त्त, दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करता हुआ मनुष्य परम प्रकाश रूप दिव्य पुरुष को अर्थात् परमेश्वर को ही प्राप्त होता है ।।
O Arjuna, the Yogi who is established in Me, with his mind constantly fixed on Me, continually remembering Me, can easily attain me.
हे अर्जुन ! जो पुरुष मुझ में अनन्य-चित्त होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरुषोत्तम को स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझ में युक्त्त हुए योगी के लिये मैं सुलभ हूँ, अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ ।। १४ ।।
However, Arjuna, for those beings who worship Me with a fixed mind, meditating and constantly thinking of Me, worshipping Me without any desire for rewards in return for their worship, are granted full refuge and salvation in My Supreme Abode (Heaven). These devotees are never reborn in this cycles of birth and death and attain a place in My Abode for Eternity.
जो अनन्य प्रेमी भक्क्त जन मुझ परमेश्वर को निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से भजते है, उन नित्य- निरन्तर मेरा चिन्तन करने वाले पुरुषो का योग क्षेम मै स्वयं प्राप्त कर देता हूँ ।। २२ ।।
Arjuna, recognize Me as the eternal source and MAKER of all that exists in this world. It is because of ME that anything can move in this world. Those who truly know and understand this, are wise people and shall always worship ME with full faith and devotion.
मैं वासुदेव ही सम्पूर्ण जगत्त् की उत्पत्ति का कारण हूँ और मुझ से ही सब जगत्त् चेष्टा करता है, इस प्रकार समझ कर श्रद्भा और भक्त्ति से युक्त्त बुद्भिमान् भक्त्तजन मुझ परमेश्वर को निरन्तर भजते है ।। ८ ।।
He who truly loves Me; devotes his whole life to performing actions to please only Myself; who recognizes that I am the Supreme and final goal of life; who is free from all attachment and has love for all that I have created; that man comes to truly know who I am.
हे अर्जुन ! जो पुरुष केवल मेरे ही लिये सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करने वाला हैं, मेरे परायण है, मेरा भक्त्त हैं, आसक्तिरहित है और सम्पूर्ण भूत प्राणियों में वैर भाव से रहित है वह अनन्य भक्ति युक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता हैं ।। ५५ ।।
Therefore, fix your mind on Me alone, let your thoughts reside in Me. You will hereafter live in Me alone. Do not have any doubt about it.
मुझ में मन को लगा और मुझ में ही बुद्भि को लगा ; इसके उपरान्त तू मुझ में ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं हैं ।। ८ ।।
He who beholds the imperishable Supreme Lord, existing equally in all perishable beings, realizes the truth.
जो पुरुष नष्ट होते हुए इस चराचर भूतों में परमेश्वर को नाशरहित और समभाव से स्थित देखता हैं, वही यथार्थ देखता हैं ।। २७ ।।
O Arjuna, at the same time, I also become the fire of life that exists in all things that breathe on this earth. Together, with the fiery breaths of life that flow in and flow out of body, I burn and digest the four kinds of pure foods on this earth, while residing in a being’s body.
मैं ही सब प्राणियों के शरीर के स्थित रहने वाला प्राण और अपान से संयुक्त्त वैश्वानर अग्निरूप होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ ।। १४ ।।
One can only fully understand Me, the Supreme Spirit, as I truly am, by pouring out his pure love and devotion to Me. When this being has truly realized and understood Me, in the end, he enters into and becomes a part of Me, the Supreme Soul.
उस परा भक्त्ति के द्वारा वह मुझ परमात्मा को, मैं जो हूँ और जितना हूँ, ठीक वैसा का वैसा तत्त्व से जान लेता है ; तथा उस भक्त्ति से मुझको तत्त्व से जान कर तत्काल ही मुझ में प्रविष्ट हो जाता है ।। ५५ ।।
While engaged in whatever task a person has been prescribed, a person can task refuge in Me, and with My Divine Grace and Protection, a person, can easily reach the most Supreme and Eternal Abode where I reside.
मेरे परायण हुआ योगी तो सम्पूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परम पद को प्राप्त हो जाता है ।। ५६ ।।
The Blessed Lord explained:
O Arjuna, God dwells in the hearts of all beings just as He dwells in your heart. With His Almighty power, He moves and directs all living things in this world as if they were sitting on a machine that was moving them through time.
हे अर्जुन ! शरीर रूप यन्त्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण करता हुआ सब प्राणियों के ह्रदय में स्थित है ।। ६१ ।।
Devote your heart, mind, religious sacrifices and prayers to Me for eternity O Partha, and you shall, without fail, become a part of Me forever. This is My promise to you, My devotee.
हे अर्जुन ! तू मुझ में मन वाला हो, मेरा भक्त्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर । ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझ से सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ ; क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है ।। ६५ ।।
However O Bharata, he who preaches My divine teachings to those who show true love and devotion to Me and who, themselves, are eternally devoted to Me, in the end, they shall also become a part of Me.
जो पुरुष मुझ में परम प्रेम करके इस परम रहस्य युक्त्त गीता शास्त्र को मेरे भक्त्तों में कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा —– इसमे कोई संदेह नहीं ।। ६८ ।।
Wherever there is the Divine Lord Krishna, the Master of all Yoga, and the able disciple Arjuna, there is beauty, morality, extraordinary power, and victory over all evil. O King Dhrtarastra, this is my unshakeable belief and faith.
हे राजन् ! जहां योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव धनुषधारी अर्जुन हैं, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है —-ऐसा मेरा मत है ।। ७८ ।।